Monday, May 5, 2008

ज्ञान का बोझ

हथेलियों से लेकर कोहनियों तक दोनों हाथों में काफ़ी दर्द हो रहा है। २४ साल पहले का वक्त लौट आया लगता है. हम नए घर में शिफ्ट हुए थे. अक्सर पानी की सप्लाई रुक जाती थी और कभी कभी तो ये सिलसिला दो तीन दिन तक खिंच जाता था. तब घर सो दो बाल्टियां लेकर निकलता था और दूर हैण्ड पम्प से पानी भर कर घर लाता था. अब दादी नहा लीं हैं, अब मम्मी नहायेंगी, अब पौधों के लिए पानी और अब खाना बनाने का. घर भर का पानी भरने का जिम्मा मुख्य तौर पर मेरा होता था जिसमे दोनों दीदी भी परोपकार की नीयत से हाथ बटा लेती थीं. बाहें बहुत थक जाती थीं पर बहादुरी में कभी किसी को नहीं बताता था.

लंबे अरसे की आरामतलबी के बाद हाथों का वो पुराना दर्द फिर जागा है. इस बार अपनी पहली बासो लाइब्रेरी के लिए. हुआ यूं की हमें सेक्टर के आर डब्ल्यू ए ने जगह नहीं दी तो सोचा की इतने पैसे तो हैं नहीं की कोई जगह किराये पर ली जा सके. सब्र बाढ़ के दिनों में गंगा जी के किनारे की तरह वक्त के हर थपेडे के साथ पानी में घुलता जा रहा था. तय किया की अब और इंतज़ार नहीं हो सकता, नोएडा के सेक्टर ५६ के डी ब्लाक के पार्क में ही लाइब्रेरी शुरू कर दी जाए. मैं और मेरी दीदी झटपट बाज़ार गए और चार चटाइयां, एक प्लास्टिक का ब्लैकबोर्ड एक चोक का डिब्बा, दो रजिस्टर और ऐसा ही कुछ दूसरा छोटा मोटा सामन खरीन लाये और शाम को ये सामान ले कर सीधे पार्क में जा धमाके. इतने में मित्र डॉक्टर उपेन्द्र, उनके दो बेटे, इंजीनियरिंग के छात्र सिद्धार्थ भी घर आ गए. इन लोगों के साथ किताबें और बाकी का सामान ले कर हम सीधे सामने के पार्क में जा धमके ।

सिद्धार्थ ने ब्लैक बोर्ड पर बासो लाइब्रेरी का नाम और जानकारी लिखी. इस बोर्ड को हवा की तमाम बद्तामीजियों के खिलाफ एक पेड़ से अनुशासित कर लटकाया गया. दीदी ने चटाइयां बिछाईं और तब तक मैं घर से तीन चार चक्करों में करीब तीन सौ पुस्तकों का साझा खजाना उठा लाया. डॉ उपेन्द्र के बेटे भारत और पार्थसारथी वालंटियर बन गए. किताबें बिछीं तो आस पास खेल रहे बच्चे कौतूहल से जुटे. ये जानकर की किताबें उनके लिए ही हैं, उनकी खुशी अव्यवस्था बनकर फैल गयी. पाँच साल की बुलबुल और दस साल की मणिकर्णिका तुरंत व्यवस्थापक बन गयीं. और बासो की पहली लाइब्रेरी शुरू हो गई. बच्चों का उत्साह देखने लायक था और शायद मेरा भी. मेरी पत्नी पूनम के पिता जी हमारे घर आए हुए थे. मैं बासो को ले कर जो हवाई किले बनाता था उनकी नाप जोख का जिम्मा उनपर था. लाइब्रेरी शुरू होने के वक्त वो भी पार्क में मौजूद थे. जब किताबों को लेने, छूने, पढ़ने को लेकर बच्चों में होड़ लगी थी तो उन्होंने मेरे पास आकर कहा, अच्छा हुआ की हमें कम्यूनिटी सेंटर में जगह नहीं मिली.

यहाँ एक बात कहानी बहुत जरूरी है. सबसे ज्यादों उत्साह नन्हें रुद्र की किताबों को लेकर रहा. रुद्र मेरे दोस्त और NDTV के पत्रकार संदीप भूषण का बेटा है. उसने बासो की इस लाइब्रेरी की लिए अपनी सबसे प्यारी बहुत सारी किताबें दी हैं. मैं नहीं जानता की जब शनिवार शाम करीब छः बजे लाइब्रेरी शुरू हो रही थी, नन्हा रुद्र कहाँ था और क्या कर रहा था लेकिन इतना पक्के तौर पर कह सकता हूँ की उसे उस वक्त अचानक बहुत अच्छा लगा होगा, मुस्कुराने का मन किया होगा. हवा के एक झोंके के साथ बहुत से नन्हें दोस्तों की आवाज़ ने उसे छूकर कहा होगा – “शुक्रिया रुद्र.”

आज इस लाइब्रेरी का दूसरा दिन था और तीसरा सेशन. बात साफ करता चलूँ. मुश्किल ये है की ये लाइब्रेरी है नर्म घास के ऊपर और खुले आसमान के नीचे. न तो ये अंधेरे में चल सकती है और न चटकती दोपहर में। इसलिए फिलहाल तय ये हुआ है की लाइब्रेरी सुबह छः बजे से आठ बजे तक चलेगी और शाम को सार्हे (half past) पाँच बजे से सार्हे सात बजे तक. सोमवार और शुक्रवार को लाइब्रेरी बंद रहेगी और बाकी जब बरखा रानी की कृपा हो जाए. तो हर बार लाइब्रेरी का वक्त शुरू होने से पहले तीन सौ किताबों में बंद ज्ञान कुछ थैलों में रखकर पार्क तक पहुंचाना होता है और फिर लाइब्रेरी का वक्त ख़त्म होने के बाद ये थैले वापस उठाकर घर लाने होते हैं. ज्ञान के इसी बोझ से हाथ दुःख रहे हैं और २४ साल पहले का वक्त याद आ गया. उस वक्त की तरह ये दर्द भी अच्छा लग रहा है।

3 comments:

गिरिजेश.. said...

ज्ञान का बोझ मत कहिए। व्यंग्य सा लगता है। आपके हाथ तो किताबों के बोझ से दुख रहे हैं, और ईश्वर करे ये बोझ बढ़ता ही चला जाए।
बासो का सपना जितना खूबसूरत और अनूठा है, इसकी शुरुआत की कहानी भी उतनी ही प्यारी है। ढेर सारी बधाइयां।
बासो के लिए मेरी लाइब्रेरी में भी कुछ किताबें हैं, कैसे पहुंचाऊं?

Anonymous said...

"dekho phir bana liya hai gharounda usne
abhi kal hi to ukhad phenka tha tumne use
apne bade se dewankhane ke roshandan se
is bar usne tumhara aangan chuna hai
masoor ke dane jaisi aankhon me ye chunouti
paron me lahoo ke doudne tak kayam rahegi"

priya mitra, ye linein khas aapke liye likhi hain. jan kar dukh bhi hua aur achraj bhi ki rwa ke r me bachhe shamil nahi hain. khair koi baat nahi... rudra, bulbul aur manikarnika ki vajah se team kaphi majboot position me hai. galat kahte hain ki bachhe humari kamjori hote hain. aksar unka housala hamre kamjor padte prayason me nai jaan dal deta hai.jald hi time nikal kar aur likunga baso ke liye kuchh naye sujhavon ke saath. tab tak....lage raho munna bhai

tumhara
abhijit

Anonymous said...

देखो फिर बना लिया है घरौंदा उसने। अभी कल ही तो उखाड़ फेंका था तुमने उसे अपने बड़े से दीवानखाने के रोशनदान से। इस बार उसने तुम्हारा आँगन चुना है। मसूर के दाने जैसी आंखों में ये चुनौती परों
में लहू के दौड़ने तक कायम रहेगी"

प्रिय मित्र, ये लाइनें खास आपके लिए लिखी हैं। जान कर दुःख भी हुआ और अचरज भी कि RWA के R में बच्चे शामिल नही हैं। खैर कोई बात नही... रुद्र, बुलबुल और मणिकर्णिका की वजह से टीम काफी मजबूत pojeeshan में है। ग़लत कहते हैं की बच्चे हमारी कमजोरी होते हैं। अक्सर उनका हौसला हमरे कमजोर पड़ते प्रयासों जान दाल देता है। जल्द ही टाइम निकल कर और लिखूंगा बासो के लिए कुछ नए सुझावों के साथ। तब तक....लगे रहो मुन्ना भाई
तुम्हारा
अभिजित