Wednesday, April 30, 2008

मुश्किल भी नहीं आसां भी नहीं


कॉपी पेंसिल लेकर हवाई किले बनाना काफी आसान होता है, लेकिन जब इस सपने को हकीकत के धरातल पर खींचो तो अजब तरह की मुश्किलें पेश आती हैं। ऐसी मुश्किलें जिनका सपने में भी गुमान नहीं होता। शुरुआत में सबकुछ बहुत आसान लग रहा था। अब पहली लाइब्रेरी के लिए जगह ही नहीं मिल रही है। मैनें सोचा था कि बच्चों कि रूचि के इस काम के लिए आर डबल्यू ए यानी रेजिदेंट्स वेलफेयर असोसिएशन फ़टाफ़ट तैयार हो जायेंगे। वो भी चाहते होंगे कि बच्चों एंटरटेनमेंट टेलीविजन और वीडियोगेम्स की बुरी संगत से आजादी मिले। किताबों से उनकी जान पहचान हो, दोस्ती हो। वो जरूर ऐसा ही सोचते होंगे लेकिन शायद स्वाभाविक शंका उन्हें रोकती होगी की जाने कौन संस्था है, जाने कौन लोग हैं। अगर आसान हो तो सिंदबाद जहाजी की कहानियों का रोमांच कहाँ से आएगा? शायद इसीलिए बासो की शुरुआत करते वक्त से ही मुश्किलें आसपास ही रही हैं। इस बात को कम्पनी सेक्रेटरी दोस्त मनीष रंजन बहुत अच्छे से जानते हैं। फीस उन्होंने ली नहीं, उल्टे अपनी जेब से पैसे लगाए। २४५० रुपये का हिसाब बासो की तरफ़ निकलता है लेकिन बासो के पास अभी पैसे ही नहीं हैं। वक्त इतना ज्यादा लगा जितनी किसी को उम्मीद नहीं थी। तो मुश्किलों से बासो की दोस्ती पुरानी है। फिलहाल तय ये किया है की किसी पार्क में दूकान जमाई जाए। बाबा रामदेव की योग क्रांति भी शहरों के पार्कों की गोद में जन्मी है। क्रांतियों के लिए नर्म घास वाली ये जमीन काफ़ी उर्वर लगती है। इरादा ये है की एक छोटा सा बैनर लगा कर पार्क में ही लाइब्रेरी सजा दी जाए और बच्चों को पढ़ने का चस्का लगाया जाए। सोचा ये भी है की गरमी की छुट्टियां शुरू होने वाली हैं। एक हजार रुपये की प्रोत्साहन राशी रख कर मोहल्ले के दो-तीन बच्चों को ही लाइब्रेरी जमाने, सजाने और चलाने का जिम्मा सौंपा जाए। जिनकी लाइब्रेरी है, वो ही चलायें। उन्हें एक बड़ा काम हाथ में लेकर उसे व्यवस्थित तरीके से अंजाम तक पहुंचाने का अनुभव भी मिलेगा और जिम्मेदारी उठाने की ताकत भी मिलेगी। अगले दस दिनों में इस योजना को जमीन पर ले आने का निश्चय किया है। आगे उसकी इच्छा जिसका काम है या जिसकी प्रेरणा से काम शुरू हुआ है।

Sunday, April 20, 2008

बड़ी जीजी


बड़ी जीजी हम चार भाई बहनों के छोटे से गैंग की लीडर थीं। हम कहीं भी जाते, वो आगे-आगे तन कर चलतीं और हम उनके पीछे-पीछे। जीजी के होते छोटी मोटी मुसीबतें मुश्किलें हमारे आस पास फाटक भी नहीं सकती थीं। वो हमेशा हर खेल में जीतती थीं। उनके दोस्त सहेलियां आते तो हम उनके आगे पीछे भी घूमते।

बचपन के बड़े हिस्से में जीजी हमारे सामने एक फ़िल्म की तरह गुजरती गयीं जो जादूगरनी के ग्लोब में दिखाई देती है। यानि उन्हें देख कर हमें पता चल जाता कि आगे हमारे साथ क्या होने वाला है। जब उन्होंने बचपन से किशोरावस्था में कदम रखा तो हम ही उनके सबसे पक्के सच्चे दोस्त थे। कभी घर कि छत पर तो कभी सबके सोने के बाद हम उनसे बात करने बैठते और जाने कितना वक्त चुपचाप बेआवाज़ बह जाता। मैं ग्यारहवीं में था जब दीदी कि शादी हुई। हमारे लिए जीजी की शादी का सबसे बड़ा मतलब उनका अपने बीच से गायब होना था। जब वो घर आतीं तो मम्मी से ही ज़्यादा बातें करतीं। यूं कई बार उनसे उनकी ससुराल में भी मिला पर वो दूसरी ही जीजी थीं। इस तरह जीजी की शादी हमारे जीवन में बड़ी घटना थी।

इधर जीजी काफी कुछ मम्मी जैसी हो गयी थीं। अपनी जिंदगी भी कहाँ से कहाँ पहुँच गयी। बासो की शुरुआत हुई तो जीजी से बात हुई। जीजी अगर जीजी होतीं तो मेरे हवाई किले में दो मीनारें अपनी भी खड़ी करतीं, या शायद तुरंत पूरी लड़ाई की कमान संभल लेतीं। लेकिन इस बार माँ की तरह मेरे इरादे पर जीजी ने पूरा भरोसा जताया। कहा चलो आज से मैं भी तुम्हारे साथ। बासो का अकाउंट खुलने में भी देर थी लेकिन दीदी एक हजार रुपये ले आईं। मैंने कहा, जब शुरू करूंगा तो बताऊंगा, लेकिन वो नहीं मानीं। दान के वक्त उनका संकल्प मैं कभी नहीं भूलूंगा। मेरी हथेली पर पैसे रखने से पहले उनहोंने एक पल आँख बंद कर कहा। भगवान्, ये पैसे दे रही हूँ। इसका कोई बदला या फल मुझे न मिले। निष्काम कर्म का ये पाठ पढाने के लिए भगवान् कृष्ण को गीता में सात सौ श्लोक कहने पड़े थे, जीजी ने एक वाक्य में वो बात मुझे ऐसे समझाई की शायद कभी न भूल पाऊंगा।