बड़ी जीजी हम चार भाई बहनों के छोटे से गैंग की लीडर थीं। हम कहीं भी जाते, वो आगे-आगे तन कर चलतीं और हम उनके पीछे-पीछे। जीजी के होते छोटी मोटी मुसीबतें मुश्किलें हमारे आस पास फाटक भी नहीं सकती थीं। वो हमेशा हर खेल में जीतती थीं। उनके दोस्त सहेलियां आते तो हम उनके आगे पीछे भी घूमते।
बचपन के बड़े हिस्से में जीजी हमारे सामने एक फ़िल्म की तरह गुजरती गयीं जो जादूगरनी के ग्लोब में दिखाई देती है। यानि उन्हें देख कर हमें पता चल जाता कि आगे हमारे साथ क्या होने वाला है। जब उन्होंने बचपन से किशोरावस्था में कदम रखा तो हम ही उनके सबसे पक्के सच्चे दोस्त थे। कभी घर कि छत पर तो कभी सबके सोने के बाद हम उनसे बात करने बैठते और जाने कितना वक्त चुपचाप बेआवाज़ बह जाता। मैं ग्यारहवीं में था जब दीदी कि शादी हुई। हमारे लिए जीजी की शादी का सबसे बड़ा मतलब उनका अपने बीच से गायब होना था। जब वो घर आतीं तो मम्मी से ही ज़्यादा बातें करतीं। यूं कई बार उनसे उनकी ससुराल में भी मिला पर वो दूसरी ही जीजी थीं। इस तरह जीजी की शादी हमारे जीवन में बड़ी घटना थी।
इधर जीजी काफी कुछ मम्मी जैसी हो गयी थीं। अपनी जिंदगी भी कहाँ से कहाँ पहुँच गयी। बासो की शुरुआत हुई तो जीजी से बात हुई। जीजी अगर जीजी होतीं तो मेरे हवाई किले में दो मीनारें अपनी भी खड़ी करतीं, या शायद तुरंत पूरी लड़ाई की कमान संभल लेतीं। लेकिन इस बार माँ की तरह मेरे इरादे पर जीजी ने पूरा भरोसा जताया। कहा चलो आज से मैं भी तुम्हारे साथ। बासो का अकाउंट खुलने में भी देर थी लेकिन दीदी एक हजार रुपये ले आईं। मैंने कहा, जब शुरू करूंगा तो बताऊंगा, लेकिन वो नहीं मानीं। दान के वक्त उनका संकल्प मैं कभी नहीं भूलूंगा। मेरी हथेली पर पैसे रखने से पहले उनहोंने एक पल आँख बंद कर कहा। भगवान्, ये पैसे दे रही हूँ। इसका कोई बदला या फल मुझे न मिले। निष्काम कर्म का ये पाठ पढाने के लिए भगवान् कृष्ण को गीता में सात सौ श्लोक कहने पड़े थे, जीजी ने एक वाक्य में वो बात मुझे ऐसे समझाई की शायद कभी न भूल पाऊंगा।
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