Friday, March 7, 2008

एक सपने का उगना

पाँच साल की बुलबुल का ज़मीन से एक नया बना रिश्ता है। कोई भी चीज़ जिसे पहले मुट्ठी में बंद करने का जी करे और फिर बार-बार देखने का भी, उसे ज़मीन की पोली हथेली में दबा देती है। इस उम्मीद के साथ की ज़मीन की मुट्ठी की संधों से अभी एक सपना झाँकेगा। उसकी आंखों में उम्र भर इंतज़ार का जज्बा होता है पर दिल में एक पल का सब्र नहीं।
बीते साल जनवरी में मैंने भी यूं ही एक सुबह एक सपना बोया था। तेरह महीने बाद बासो नाम के इस सपने ने जन्म लिया है। विनोबा के शब्दों में कहें तो बासो का जन्म होना था अभाव के वैभव में तो फिर सबका जुटना जरूरी था ही । सबसे पहले वकील दोस्त सचिन पुरी ने हाथ बढ़ाया। कागजी खानापूरी निपटाने का काम उन्होंने साथी विकास तोमर को सौंपा। विकास इस कमिटमेंट से न जुटते तो बासो की शुरुआत ही शायद कभी न होती। इसके बाद चार्टर्ड एकाउंटेंट दोस्त राजेश और कम्पनी सेक्रेटरी दोस्त मनीष रंजन जुटे। किसी ने कोई फीस नहीं ली। मनीष भाई की जेब से कितने पैसे लगे इसका हिसाब होना बाकी है। पर शुक्रिया किसी का नहीं। शुक्रिया से हिस्सेदारी का एहसास कम होता है। २८ फरवरी को रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट मिला था। अब सफर शुरू हुआ है। अभी बहुत दूर चलना है साथ साथ
मैं अकेला ही चला था जानिब-e- मंजिल मगर
लोग साथ आते गये और karvaan banta gaya